“चाल चलन”
चाल चलन कुछ बदल गये हैं आज हवाओं के,
शायद तभी असर कुछ कम हो गये दुआओं के।
बादल जो बरसा करते थे सिर्फ़ गरजते हैं,
बदले-बदले से तेवर दिख रहे घटाओं के।
पेड़ों पर मीठे फल अब सपने की बातें हैं,
कोयल भी गा रही गीत विषबुझी लताओं के।
बारूदों के ढेरों में इंसान दब गया है,
उसके सपने दास बने ख़ूनी आक़ाओं के।
गलियों-गलियों करते थे जो नित प्रभातफेरी,
वे ही बच्चे आज बन गये ख़ुदा ख़ुदाओं के।
पूरी दुनियाँ आज आपदा की गिरफ़्त में है,
दर्शक मूक बन गये सब इन जली चिताओं के।
डॉ. शशि तिवारी