“ओ कालचक्र !”
ओ कालचक्र ! क्या लौटा देगा
मेरे जीवन के बीते दिन ?
मन के सूने आँगन में है
लगा हुआ सुधियों का मेला,
जाने कितनी सजी दुकानें
फिर भी मन है निपट अकेला।
ओ कालचक्र ! क्या लौटा देगा
दिन अमोल, कुछ मोल लिये बिन ?
स्मृतियों के मधुर पटल पर
सबसे पहले माता उभरी,
माँ की लोरी फिर से कानों
में अमृत-सा लेकर उतरी।
ओ कालचक्र! क्या लौटा देगा
बीते भोले सपने अनगिन ?
कभी चाँद को दे आवाज़ें
मुझको मीठा दूध पिलाती।
या कौए को बुला-बुला कर
मुझको रोटी-दाल खिलाती।
ओ कालचक्र! क्या लौटा देगा
माँ के आँचल के वे पलछिन ?
पिता गोद में लेकर मुझको
सारा दिन भर सैर कराते,
मेरे तुतले स्वर में अपना
राग मिला कर गाना गाते।
ओ कालचक्र ! क्या लौटा देगा
लाड़ भरी वे रातें वे दिन ?
छत की बरसाती में बैठे
भाई-बहन अब याद आते हैं,
हुए सयाने हम सब फिर भी
बचपन के आँगन भाते हैं।
ओ कालचक्र ! क्या लौटा देगा
परीकथाओं वाले वे जिन ?
ओ कालचक्र !………
प्रो.(डॉ.) शशि तिवारी