“ग़ज़ल”
तुम्हारी बिजलियाँ गिर के जो मेरा घर जलाएंगी,
मिरी ख़ामोशियाँ ये दास्ताँ सबको सुनाएंगी
मिरे मुँह से निवाले छीन भी लोगे तो क्या होगा,
मिरी आहें तुम्हारी क्रूरता सबको बताएंगी।
तुम्हारे पत्थरों से अब मिरे शीशे नहीं डरते,
कि इन शीशों की किरचें रोज़ तुमको मुँह चिढ़ाएंगी।
भले सच्चाई की आवाज़ को तुम बन्द कर दोगे,
तुम्हारे झूठ से परदा वो आवाज़ें उठाएंगी।
सियासत की चिलम भरने से अब तो बाज़ भी आओ,
वगर्ना तुमको ये चिंगारियाँ इक दिन जलाएंगी।
प्रो.(डॉ.) शशि तिवारी